पोंग का दर्द कोन जाने - Smachar

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पोंग का दर्द कोन जाने

 पोंग का दर्द कोन जाने


प्रति कनाल 300/ से 500/ तक मुआफजा दिया गया, और एक परिवार को एक एक 125 कनाल का मुरब्बा राजस्थान में देने का वादा देकर लटकाया गया 

पिछली "जमीन घर घराट हाट" सस्ते में छीन लिए, मुआवजे के पैसे भी 10% से 20% रिश्वत देकर किश्तों में मिले, यानी प्रति कनाल रुपए 30 से लेकर 100/ तक रिश्वत देकर मुआफजे के पैसे मिले । सौ चक्कर लगे, ध्याड़ी टूटी, समय गवाया और गवाया अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य !

किसके लिए ? क्यों ?

पीछे जमीन घर घराट हाट रहे नहीं, आगे कोई बनने बनाने का साधन नहीं क्योंकि "मुजार एक्ट" 1974 में लागू हुआ जिसके तहत बुरानी अबल जमीनें, खड़ेतर आदि सभी नामक जमीनें सरकार द्वारा आवंटित की गईं ! इसमें तकनीकी कलह के कारण चार वर्ष तक पोंग विस्थापित लोग परिवार अपने बच्चों, बूढों, नारियों, पशु मवेशियों को लेकर कहां जाते ? कहां बसेरा लगाते? किससे जमीन खरीदते ? वहीं परिवार जिनके रिश्तेदार या जिनकी सहायता अन्य परिवारों ने की या प्रभाव शाली परिवार ही सफल हो पाए । जबकि बहुत से पोंग विस्थापित परिवार डीसी लैंड पर अपना बसेरा बनाने के लिए मजबूर रहे !

राजस्थान में गंगानगर की जमीनों पर भूमाफिया काबिज हो गया, आज भी है । 

1 लाख के लगभग संख्या में लोग, 30 हजार से अधिक परिवार विस्थापित हुए । इसमें 16352 परिवारों को ही मुआवजा पात्र पाया गया, 7960 परिवारों को मुरब्बे मिले, और बाकी तीसरी पीढ़ी में भी पोंग विस्थापन का दंश झेल रहे हैं ।

न जमीन है, न मुरब्बा है, यहां तक कि मुआवजा भी पूरा नहीं ले पाए । मुरब्बे भूमाफिया ने निगल लिए । सरकार ने 1959 में राजस्थान सरकार के साथ mou हस्ताक्षर किया जिसमें 3 लाख वर्ग किलोमीटर की जमीन को हल्दून के बराबर की जमीन को गंगानगर राजस्थान में देने का वादा किया । साधन सम्पन्न, प्रभावशाली लोग फायदे में रहे, बाकी धक्के में । 1982 में हिमाचल सरकार ने राजस्थान का प्रस्ताव स्वीकार किया और 3 लाख की जगह 2 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन लेने पर सहमति दे दी । फिर वह भी नहीं मिली ।

खून बहे, लोग मरे, माफिया से डरे, अपनों से दंश खाए, धोखा खाए लोग क्या करते, पिछले दर्द को रोते, वर्तमान को संभालते या भविष्य की नींव रखते । जैसे तैसे इनमें कुछ परिवार सफल हो गए, आगे निकल गए, पिछला सब हराभरा हल्दून को एक दुर्घटना समझकर भूलते रहे, दूर छोड़ दिया ।

13 हजार परिवार हल्दून से गायब हैं, 8100 परिवारों के मुरब्बे गायब हैं, जिन परिवारों के नाम मुरब्बे मिल रहे हैं वे कभी मुरब्बों पर गए ही नहीं, पिछले पचास वर्षों से उन मुरब्बों की मलाई कमाई कोई और लूट रहा है, जबकि मुरब्बा पात्र आज भी आस में ही है ।

संचार विषयक, यातायात सम्बन्धी, प्रशासनिक, आर्थिक तंगी, सूचना और ज्ञान की कमी के कारण 20 हजार जनसाधारण परिवारों, लगभग 60 हजार लोगों को सीधे सीधे ही लूट लिया लूटने दिया । 

किससे रोएं किसके विश्वास में आस भरें, आज भी संभावित मुरब्बा पात्र परिवार लगभग 9 हजार पिछले दस वर्षों से एक नासूर पाले जिए जा रहे हैं । बुजुर्ग जा चुके हैं, दूसरी पीढ़ी बुढ़ापे में इसी आस में है कि पिछले कल से बेहतर अगला कल होगा, मौजूदा पीढ़ी को अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ रहा है और जिनके घर 1974 से पहले मुजार एक्ट के कारण सरकारी भूमि लाल लकीर डीसी लैंड पर बने हैं वे पड़ोसियों के साथ अब जमीनी या अन्य कलह से अपने घरों के उखड़ने के भय में हैं । फिर से बड़े विस्थापन का डर उन्हें सता रहा है । जबकि हाल ही में मौजूदा हिमाचल सरकार में मुख्यमंत्री श्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने पोंग विस्थापितों के घरों आशियानों को सरकारी जमीन से न हटाने का निर्देश दिया है लेकिन सरकारी जमीन का नियमतिकरण नहीं हो सकता । 2001 में राजस्व मंत्री विधायक डॉ राजन सुशांत ने नियमितीकरण के लिए भविष्यगामी कदम उठाए थे परंतु अपनी ही राजनीतिक उलझनों में वे फंसते रहे और उनका राजनीतिक करियर जीत से हार में तब्दील हो गया सदा के लिए । पूर्व विधायक देहरा से श्री होशियार सिंह सिर्फ अपने सिर का मुंडन ही करवा पाए लेकिन कोई विशेष जीत हल्दून के विस्थापितों के लिए नहीं मिली । विस्थापितों ने उनके टकले सिर पर खेद व्यक्त करके अपने संघर्ष में एक और हार संग्रहित कर ली । 1996 में हाइ पावर कमेटी गठन हुआ, जिसके प्रधान हंसराज चौधरी बने आज भी हैं लेकिन वे इस पूरे दर्द का निवारण करने में समर्थ नहीं हो पाए, जबकि दर्द का प्रसारण में वे जीते हैं । कथाकार त्रिलोक मेहरा ने अपना तीसरा "उपन्यास पानी के चुभते कांटे" को पोंग विस्थापितों की आवाज के लिए इंगित किया लेकिन उनका उपन्यास हंसराज चौधरी को नायक बनाते ही अपने गंतव्य मंतव्य की लीक से भटकता रह गया । साहित्यकार डॉ सुशील फुल्ल ने भी एक उपन्यास की रचना की जिसका ध्येय पोंग विस्थापितों के दर्द से ज्यादा उपन्यास ही रह गया । अमर उजाला पत्रकार श्री श्याम सुंदर बिट्टू राजा का तालाब ने अमर उजाला में एक बड़े स्तर की स्टोरी भी पेश की और इसमें संचार प्रसार बढ़ा लेकिन यह पूर्व बीजेपी सरकार और अधिकारियों की सुस्ती को नहीं तोड़ पाई । जबकि उसमें सभी बिंदु बेहतर थे । साहित्यकार पंकज दर्शी ने अपने स्तर पर विस्थापितों के कुछ मसले निपटाए लेकिन वे समग्र पोंग विस्थापितों तक पहुंच नहीं बना सके जबकि उनका अध्ययन, तर्क और कार्यशैली हर प्रकार से सफलतागामी और परिणाम केंद्रित है । 

ऐसे में अवश्य ही उपरोक्त वक्तव्य वस्तु से स्पष्ट है कि मौजूदा मुख्यमंत्री श्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और साहित्यकार पंकज दर्शी यदि इस विषय पर कार्य करें तो बेहतर हल निकलेंगे । क्योंकि इस विस्थापन मक्कड़जाल के दर्द से कोई सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक व्यक्ति ही आगे बढ़कर इसका पूर्ण हल निकाल सकता है । विस्थापित परिवार वर्तमान मुख्यमंत्री श्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के अंतर्मन से आभारी अवश्य हैं कि उनके सरकारी भूमि पर नाजायज कब्जों को सरकार ने उनकी मजबूरी समझकर उन्हें नाजायज कब्जों से न हटाने का निर्देश दिया है, लेकिन सरकारी भूमि काबिज विस्थापित परिवारों के लिए कोई विशेष नीति तहत कदम उठाना आवश्यक ही होगा । साहित्यकार पंकज दर्शी की सुनें तो वे जहां मुख्यमंत्री के निर्देश की सराहना करते हैं वहीं वे नाजायज कब्जों को नाजायज ही करार देते हैं और सरकार से चाहते हैं कि जहां विस्थापितों ने पचास वर्ष दंश झेला है वहीं उनको अगले पचास वर्ष तक सरकारी भूमि पर रहने बसने और अपना स्थाई बंदोबस्त करने का अवसर और सहयोग दिया जाए, या तुरंत करवाई के तहत प्रति परिवार तीन कनाल बेहतर भूमि दी जाए ।आबंटित की जाए।

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