क्यों लुटी नगरोटा सूरियां की आन बान शान ?
क्यों लुटी नगरोटा सूरियां की आन बान शान ?
जो लोग गुलामी में भी खुद को सरदार कहें, ऐसे लोगों से उजाले की उम्मीद न रखो
नगरोटा सूरियां : प्रेम स्वरूप शर्मा /
नगरोटा सूरियां के निचले तरफ के भूखंड को अर्थात हलदून को पौंग झील पी गई, नगरोटा सूरियां की आधी सीमा को बायां भाग पी गया, आधी सीमा को दायां भाग पीने को आतुर है, नगरोटा सूरियां का ऊपर का भाग दो अन्य शक्तियां के हवाले है। मोटा अवलोकन करें तो नगरोटा सूरियां के करीब दस से बारह किलोमीटर के रेडियस का भूगोल चार अलग-अलग राजनीतिक शक्ति केंद्रों और चार ही प्रशासनिक शक्तियों केंद्रों में बंटा है।नगरोटा सूरियां के इस भूमंडल के वासी अपने-अपने नेताओं की चाटुकारिता में डुगडुगी और उनकी डफली दोनों को बजाने में माहिर हैं।अब से नहीं पिछले छः दशकों से बजा रहे हैं।इनकी डुगडुगी बजाने व मिजाजपुर्सी करने के बदले में बड़े नेता आम का मुख्य भाग तो खुद चूसते रहे हैं और बेचारे यहां के भू वासी गुठली में ही खुश होते रहे।देहरा से लेकर जवाली तक की 57 किलोमीटर की यह पट्टी आज भी बिन सब डिवीजन के है। जबकि कांगड़ा जिले में औसतन पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर सिविल सबडिवीजन कार्यालय मौजूद हैं (जसवां विधानसभा क्षेत्र व बड़ा बंगाल घाटी को छोड़कर)। यही एक ऐसी बदनसीब पट्टी है जो सरकार को सिर्फ टैक्स व वोट देती है । यहां की भोली भाली जनता न मांगती है न हीं चालाक नेता इन्हें देते हैं, क्योंकि जन्मभूमि सबको प्यारी होती है।अपने राजनीतिक व प्रशासनिक कार्यों के लिए अलग-अलग दिशाओं में और दूर जाने में जहां के लोगों को भी आनंद आता है।इसलिए सब डिवीजन से मेहरूम हैं और आगे भी रहेंगे। इसमें यहां के खुशामदीदों का काफी बड़ा योगदान है। नगरोटा सूरियां के पड़ोस से एक छत के नीचे सब कुछ मौजूद होने की जोर से बघार लगाने में हमारे मित्र अपना बड़ा गौरव समझते हैं। पर चिंतन नहीं करते कि नगरोटा सूरियां में भी तो एक छत के नीचे सब कुछ उपलब्ध हो सकता है। जब एक छत के नीचे सब कुछ रखना है तो शिमला से धर्मशाला दफ्तर क्यों ट्रांसफर कर रहे हो। सिर्फ अपनी सुविधा की राजनीति।अपने-अपने नेतृत्व की डुगडुगी बजाने वाले हमारे मित्रों ने अपने अपने पर्सनल हितों के सिवा कभी क्षेत्र की गरीब जनता की सुविधा का नहीं सोचा, उस पर कभी सवाल नहीं किया। अपने पर्सनल कामों से फुर्सत मिलती तभी सोचते न । देहरा से जवाली तक की 57 किलोमीटर की पट्टी के केंद्र में एक ही ऐसा कार्यालय था जो इस क्षेत्र की शान था और इस पट्टी का थोड़ा बहुत एकीकरण करता था ,पर राजनेताओं की सुविधाजनक चाहत ने उसे भी निगल लिया, दुनिया चिल्लाती रही, लोकतंत्र के राजाओं ने कतई नहीं सुनी। हद तो तब हो गई जब हमारे पड़ोसी अपने आकाओं की खुशी के लिए एक जगह एकत्रित होकर 'आ बैल मुझे मार' एवं 'अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना' के मुहावरों को चरितार्थ करने में लग गए। इन मुहावरों के अर्थवान होने में अवश्य काफी आनंद आया होगा। क्योंकि हम सवाल नहीं कर सकते । सवालों से हमारे अपने हित प्रभावित होते हैं। हमारे निजी काम रुक जाते हैं। दूसरों पर निर्भर इस राजनीतिक व प्रशासनिक रूप से बिखरी हुई भौगोलिक पटी का नेतृत्व अपनी मनमर्जी से बराबर शोषण करते रहा है। परजीवी भाव और पर निर्भरता के आदी यहां के लोग प्यालों की बजाय कुछ बूंद के मिल जाने पर ही खुश रहे और चाटुकारिता में आनंद लेते रहे। कोई अपनी सुविधा के नाम पर यहां के राजनीतिक भूगोल को लूट गया तो कोई अपनी मातृ भूमि के लिए नगरोटा सूरियां बेल्ट का आभारी होने की बजाय इस बेल्ट से अन्याय करते दिखे। अपना दिया होता ले जाते, इसमें अफ़सोस भी न होता,पर हलदून की विरासत का लुटना हर किसी को गवारा न लगा। आज बहुत सी आंखें नम हैं। जो नजदीक तो देख लेती हैं,परंतु उनमें दूर दृष्टि का अभाव है। ऐसे में इस भौगोलिक पट्टी की जनता से सवाल भी तो बनता है कि तुमने तो यूं ही चाटुकारिता में जीवन जी लिया और बहुत से अब भी जी रहे हैं। क्या अपनी अगली पीढ़ी को भी इसी चाटुकारिता का पाठ पढ़ाकर जाओगे? या उनमें प्रगतिशील सोच भी इंजेक्ट करोगे? सवाल सत्ता के कर्ण धारों से भी है जो महज औपचारिकता के बाद धृतराष्ट्र बन गए और सता की मिजाज पुर्सी में मस्त हो गए? सवाल यहां के बुद्धिजीवियों ,गणमान्यों, व आंदोलनरत नेतृत्व से भी है कि वे आंदोलन को बहुआयामी न बना सके, भले कारण कुछ भी रहे हों। और सवाल मौजूदा सत्ता से भी है कि हमारा एकीकरण क्यों नहीं, हमसे ऐसे अन्याय क्यों,? भाई हम भी तो टैक्स और वोट देते हैं और लोकतंत्र का हिस्सा है। हमें न्याय कब मिलेगा। या यह बेल्ट सिर्फ चिरौरी करने के लिए बनी है। इस भूगोलीय पट्टी का राजनीतिक व प्रशासनिक एकीकरण सिर्फ नए सामाजिक व राजनीतिक विमर्श से ही हो सकता है, जिसमें पूर्वाग्रह ,व्यक्तिगत हित व छींटाकशी, गाली गलौज को स्थान न हो, सिर्फ चिंतन हो।
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