अदृश्य शिल्पियों की विजय गाथा: नगरोटा सूरियां ब्लॉक मुख्यालय की वापसी - Smachar

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अदृश्य शिल्पियों की विजय गाथा: नगरोटा सूरियां ब्लॉक मुख्यालय की वापसी

 अदृश्य शिल्पियों की विजय गाथा: नगरोटा सूरियां ब्लॉक मुख्यालय की वापसी


नगरोटा सूरियां : प्रेम स्वरूप शर्मा /

नगरोटा सूरियां की धरती केवल भौगोलिक पहचान नहीं है, बल्कि यह संघर्ष, बलिदान और जनभावनाओं के ज्वार की जीवंत गाथा है। जब पोंग डैम की लहरों ने हलदून घाटी की बस्तियों को निगल लिया और हजारों परिवार उजड़कर बेघर हुए, तब नगरोटा सूरियां ने उन्हें नई पहचान और नया संबल दिया। इन्हीं परिस्थितियों में वर्ष 1972 में यहां ब्लॉक मुख्यालय की स्थापना हुई। यह कदम केवल प्रशासनिक सुविधा नहीं था, बल्कि क्षेत्रीय अस्मिता और आत्मसम्मान का प्रतीक बन गया।


अनदेखी और अन्याय का लंबा दौर


विडंबना यह रही कि नगरोटा सूरियां, जिसने विस्थापितों को सहारा दिया, स्वयं हमेशा उपेक्षा का शिकार रहा। क्षेत्र की राजनीतिक चेतना ने जिन नेताओं को मजबूत किया, वही नेता समय-समय पर नगरोटा सूरियां के अधिकारों को छीनने में पीछे नहीं रहे। आसपास के इलाके विकास की राह पर सब-डिवीजन बन गए, लेकिन नगरोटा सूरियां को उसका हक देने से लगातार परहेज किया गया।


साल 2025 इस अन्याय की पराकाष्ठा लेकर आया, जब राजनीतिक ताकतों ने नगरोटा सूरियां ब्लॉक कार्यालय को यहां से हटाने का निर्णय लिया। यह केवल दफ्तर का स्थानांतरण नहीं था, बल्कि क्षेत्र की आत्मा को चोट पहुँचाने जैसा था।


जनता का आक्रोश और संघर्ष


8 जुलाई का दिन नगरोटा सूरियां की पीड़ा का प्रतीक बन गया। जबरन लिए गए इस निर्णय के खिलाफ जनता सड़कों पर उतरी। महिलाओं ने आंसुओं में आक्रोश उकेरा, युवाओं ने हुंकार भरी, पार्टी कार्यकर्ताओं ने नेतृत्व को चेताया कि इससे जनता की भावनाएं आहत होंगी। आंदोलन हुए, धरने लगे, सड़कें धधकीं। लेकिन सत्ता के अहंकार ने इन आवाज़ों को अनसुना कर दिया।


इस दौर में कुछ लोग ऐसे भी सामने आए जिन्होंने क्षेत्रीय हितों से मुंह मोड़कर अपने राजनीतिक स्वार्थ साधे। लोगों ने उन्हें जयचंद की परंपरा का वाहक माना, क्योंकि उन्होंने अपने ही क्षेत्र की अस्मिता का सौदा कर सत्ता के दरबारों में हाजिरी बजाई। जनता का कहना है कि ऐसे लोगों को आने वाले चुनावों में करारा जवाब मिलेगा।


अदृश्य शिल्पियों का योगदान


हर आंदोलन का चेहरा केवल भीड़ नहीं होती। इसके पीछे वे अदृश्य शिल्पी भी होते हैं जो मंच पर नहीं आते, नारे नहीं लगाते, लेकिन न्याय की लड़ाई को दिशा देते हैं। उनकी कलम तर्क गढ़ती है, उनकी रणनीति अदालत के दरवाजे खटखटाती है। नगरोटा सूरियां की विकास यात्रा के हर पड़ाव पर ऐसे अदृश्य नायकों की छाप है—चाहे स्थानीय कॉलेज की स्थापना हो, तहसील की मांग हो या अब ब्लॉक कार्यालय की वापसी।


उनका योगदान किसी नींव की तरह है—जो दिखाई नहीं देती, लेकिन पूरी इमारत का भार उसी पर टिका होता है। आज नगरोटा सूरियां ब्लॉक मुख्यालय की वापसी केवल प्रशासनिक आदेश नहीं, बल्कि जनता की जीत और इन अदृश्य शिल्पियों की अथक मेहनत का परिणाम है।


वापसी: अस्मिता का पुनर्जीवन


ब्लॉक कार्यालय की वापसी ने नगरोटा सूरियां की घायल आत्मा को नया जीवन दिया है। यह केवल एक संस्थान की वापसी नहीं, बल्कि उन सपनों और संघर्षों की जीत है जो दशकों से यहां की जनता के दिलों में पलते रहे।


आज का जश्न जनता का अधिकार है, लेकिन असली बधाई उन अदृश्य शिल्पियों को है जिन्होंने बिना मंच पर आए, बिना तालियां बटोरें, अपने क्षेत्र की अस्मिता बचाने के लिए अपनी बुद्धि, समय और ऊर्जा न्योछावर कर दी।


निष्कर्ष


नगरोटा सूरियां की यह जीत साबित करती है कि संघर्ष चाहे कितना भी लंबा क्यों न हो, न्याय अंततः जनता के पक्ष में खड़ा होता है। सत्ता के गलियारों में किए गए अन्याय का जवाब लोकतंत्र की ताकत से मिलता है। यह विजय नगरोटा सूरियां की अस्मिता की पुनर्स्थापना है और आने वाली पीढ़ियों के लिए संदेश भी—कि अधिकार कभी मांगे नहीं जाते, उन्हें संघर्ष से हासिल किया जाता है।

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